इस पाठ में लेखक ने विश्व प्रसिद्ध शहनाई वादक भारत रत्न से विभूषित स्व. श्री बिस्मिल्लाह खां की बाल्यावस्था से लेकर उनकी उपलब्धियों तक का चित्रण किया है| लेखक ने विस्मिल्ला खाँ का परिचय देने के साथ ही उनकी रुचियों, उनके अंतर्मन की बुनावट, संगीत की साधना और लगन को संवेदनशील भाषा में प्रस्तुत किया है।
लेखक परिचय
यतीन्द्र मिश्र का जन्म सन 1977 में अयोध्या, उत्तर प्रदेश में हुआ। लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी में एम.ए. करने के बाद वे आजकल स्वतंत्र लेखन के साथ ही अर्द्धवार्षिक सहित’ पत्रिका का संपादन कर रहे हैं। सन 1999 से वे साहित्य और कलाओं के संवर्धन और अनुशीलन के लिए एक सांस्कृतिक न्यास ‘विमला देवी फाउंडेशन का सञ्चालन कर रहे हैं। इन्होंने शास्त्रीय गायिका ‘गिरिजा देवी’ के जीवन तथा व्यक्तित्व पर ‘गिरिजा’ नामक पुस्तक की रचना की। कवि द्विजदेव की ग्रंथावली का सहसंपादन किया । इन्हें भारत भूषण अग्रवाल कविता सम्मान, हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान आदि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
नौबतखाने में इबादत Class 10 Hindi Kshitij NCERT Summary
बिस्मिल्ला खां के बचपन का नाम अमीरुद्दीन था । छह वर्ष की अवस्था में ये और इन से तीन साल बड़े भाई शमसुद्दीन अपने ननिहाल काशी आ गये थे। वहां इनके दोनों मामा अलीबख्श और सादिक हुसैन प्रसिद्ध शहनाई वादक बन चुके थे और राज-घरानों में शहनाई वादन के लिए जाया करते थे। शहनाई वादन इनका खानदानी पेशा था । इनके नाना भी शहनाई वादन करते थे।
अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव में हुआ। 5-6 वर्ष के बाद वह डुमराँव से ननिहाल काशी में आ गए। डुमरांव का वैसे तो इतिहास में कोई महत्व नहीं है। अमीरुद्दीन का जन्म स्थल यही है और शहनाई बजाने के लिए जिस रीड का प्रयोग होता है जो अन्दर से पोली होती है, वह डुमरांव में सोन नदी के किनारे नरकट नाम की घास से बनी होती है। बस इन्हीं दोनों कारणों की वजह से डुमरांव का नाम जाना जाता है।
अपने ढेरों साक्षात्कारों में बिस्मिल्ला खां ने यह स्वीकार किया है कि संगीत के प्रति उनका झुकाव रसूलन बाई एवं बतूलन बाई नामक दो गायिका बहनों के दादरा-ठुमरी को सुनकर हुआ । 14 साल के अमीरुद्दीन को बालाजी के पुराने मंदिर में रियाज के लिए जाना पड़ता था। बालाजी के मंदिर का रास्ता इन दोनों बहिनों के यहाँ से होकर जाता था। अमीरुद्दीन को दोनों बहनों का गाना अच्छा लगता था। संगीत में आने का पूरा श्रेय बिस्मिल्ला खां इन्हीं दोनों बहनों को देते हैं।
वैदिक इतिहास में शहनाई का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। इसे ‘सुषिर-वाद्यों’ में गिना जाता है। सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तानसेन के द्वारा रची बंदिश में शहनाई, मुरली, वंशी, शृंगी एवं मुरछंग आदि का वर्णन आया है। अवधी पारंपरिक लोकगीतों एवं चैती में शहनाई का उल्लेख बार-बार मिलता है। मांगलिक विधि-विधानों के अवसर पर यह वाद्य बजाया जाता है। यह दक्षिण भारत के मंगल वाद्य ‘नागस्वरम’ की तरह शहनाई, प्रभाती की मंगल-ध्वनि का संपूरक है।
अस्सी वर्ष की आयु में भी बिस्मिल्ला खां अपनी पांचों वक्त की नमाज में खुदा से यही दुआ मांगते थे कि उनके सुर में वह तासीर पैदा कर दे कि सुनने वालों की आंखों से आंसू निकल आएं । उनकी शहनाई के साथ मुहर्रम का त्योहार जुडा हुआ था। पूरे दस दिन तक उनके परिवार में कोई भी किसी संगीत समारोह में शिरकत नहीं करता था। आठवीं तारीख को दालमंडी में फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल रोते हुए नौहा बजाते हुए जाते थे। उस दिन अन्य राग-रागिनी नहीं बजती। शोक मनाया जाता है।
बिस्मिल्ला खां कभी-कभी सकून के क्षणों में अपनी जवानी के दिनों को याद करते थे। उन्हें अपना रियाज कम, उन दिनों का जुनून अधिक याद आता है। अपने अब्बा जान और उस्ताद को कम, पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन की कचौड़ी वाली दुकान और गीताबाली और सुलोचना को ज्यादा याद करते थे। सुलोचना उनकी पसंदीदा हीरोइन थी। वे याद करते थे कि जब मैं चार साल का रहा हूँगा तब कैसे नाना को शहनाई बजाते छिपकर सुनता था, उनके चले जाने पर उनकी शहनाई को ढूँढ़कर बजाता था। फिल्म देखने का बुखार बना रहता था। थर्ड क्लास का टिकट छह पैसे का मिलता था और दो-दो पैसे मामू, मौसी और नानी से लेकर घंटों लाइन में लगकर टिकिट हासिल करता था। सुलोचना की कोई भी फिल्म बिना देखे नहीं छोड़ता था और कुलसुम की देशी घी वाली कचौड़ी की दुकान से कचौड़ी नहीं छूटती थी।
काशी संगीत की थापों पर जागती और सोती थी। वहां हनुमान जयंती पर पांच दिनों तक संगीत का आयोजन होता था जिसमें बिस्मिल्ला खां शामिल होते थे। विश्वनाथ के प्रति उनकी अपार श्रद्धा का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वे जब काशी से बाहर होते थे तो बालाजी के मंदिर की ओर मुंह करके बैठ जाते थे और शहनाई का प्याला उस दिशा में घुमाकर बैठा जाते थे। उनकी आस्था रीड के माध्यम से व्यक्त होती थी। वे कहते थे कि मरते दम तक न काशी छूटेगी और न ही संगीत । वे कहते थे कि काशी और शहनाई से बढ़कर कोई जन्नत नहीं है।
काशी संस्कृति की पाठशाला है। शास्त्रों में आनंदकानन के नाम से प्रतिष्ठित। काशी में कलाधर हनुमान व नृत्य-विश्वनाथ हैं। काशी में बिस्मिल्ला खाँ हैं। काशी में हजारों सालों का इतिहास है जिसमें पंडित कंठे महाराज हैं, विद्याधरी हैं, बड़े रामदास जी हैं, मौजुद्दीन खाँ हैं व इन रसिकों से उपकृत होने वाला अपार जन-समूह है। यहां संगीत को भक्ति से, भक्ति को किसी भी धर्म के कलाकार से, कजरी को चैती से, विश्वनाथ को विशालाक्षी से बिस्मिल्ला खां को गंगाद्वार से अलग नहीं देख सकते।
अक्सर उत्सवों में शहनाई को देखकर लोग कहते हैं यह है शहनाई, शहनाई का मतलब बिस्मिल्ला खां । उनकी शहनाई का जादू सर चढ़कर बोलने लगता है। बिस्मिल्ला खां का सुरीला संसार शुरू हुआ और फूंक में अजान की तासीर उतरती चली गई। एक दिन एक शिष्या ने डरते डरते कहा कि-बाबा! आप भारत रत्न पा चुके हैं। यह फटी तहमद न पहना करें। इस पर बिस्मिल्ला खां बोलेपगली, भारत रत्न हमको शहनाई पर मिला है लुंगी पर नहीं । बस मालिक से ये दुआ है कि फटा सुर न बख्शे । लुंगिया का क्या है आज फटी है तो कल सी जाएगी।
काशी से मलाई बरफ़ बेचने वाले जा चुके हैं। अब देशी घी की कचौड़ियाँ नहीं रहीं। संगतियों के लिए गायकों के मन में कोई आदर नहीं रहा। घंटों रियाज को अब कौन पूछता है? कजली, चैती और अदब का जमाना नहीं रहा है। धीरे-धीरे सारी परंपराएँ लुप्त हो रही हैं। बनते-बिगड़ते इतिहास में जो कुछ बचा है वह काशी में है। काशी आज भी संगीत के स्वर पर जगती है और उसी की थापों पर सोती है। काशी में मरण भी मंगल माना गया है। काशी आनंदकानन है। काशी में सबसे बड़ी बात है कि दो कौमों को एक होने व आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा है।
भारत रत्न से लेकर इस देश के ढेरों विश्वविद्यालयों की मानद उपाधियों से अलंकृत, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्मविभूषण जैसे सम्मानों से नहीं बल्कि अपनी अजेय संगीत यात्रा के लिए बिस्मिल्ला खां हमेशा संगीत के नायक रहेंगे। नब्बे वर्ष की आयु में 21 अगस्त, 2006 में शहनाई की दुनिया के नायक ने इस दुनिया से अंतिम विदा ली।
शब्दार्थ
अज़ादारी – मातम करना, ड्योढ़ी – दहलीज़, सज़दा – माथा टेकना, नौबतखाना – प्रवेश द्वार के ऊपर मंगल ध्वनि बजाने का स्थान, रियाज़ – अभ्यास, मार्फत – द्वारा, श्रृंगी – सींग का बना वाद्ययंत्र, मुरछंग – एक प्रकार का लोक वाद्ययंत्र, नेमत – ईश्वर की देन, इबादत – उपासना, तिलिस्म – जादू, बदस्तूर – कायदे से, अदब – कायदा, अलहमदुलिल्लाह – तमाम तारीफ ईश्वर के लिए, जिजीविषा – जीने की इच्छा, रोजनामचा – दिनचर्या, पोली – खाली, फूंका जाना – बजाया जाना, बंदिश – धुन, मुराद – इच्छा, गमज़दा – दुख से पूर्ण, माहौल – वातावरण, सुवून – राहत, आराम, बालसुलभ – बच्चों जैसी, कलाधर – कला को धारण करने वाला, विशालाक्षी – बड़ी आँखों वाली, बेताले – बिना ताल के, तहमद – लुंगी, परवरदिगार – ईश्वर, आनंदकानन – बनारस का एक पर्याय, दादरा – एक प्रकार का चलता गाना। दो अर्धमात्राओं के ताल को भी दादरा कहा जाता है।
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